मुंबई : उदास चेहरा, आंखों में आंसू और हाथ में लटकी एक प्लास्टिक की पॉलीथीन। वह पैदल चला, बस में बैठा और 90 किलो मीटर की यात्रा इसी तरह हाथ में पॉलीथीन लटकाकर की। यूं तो हर किसी को लगा कि उसमें कोई सामान होगा लेकिन जब हकीकत पता चली तो सबके रोंगटे खड़े हो गए। उसके अंदर कोई चीज नहीं बल्कि उस शख्स के कलेजे का टुकड़ा, उसकी बेटी थी। वह बेटी जिसने 9 महीने बाद मां के पेट से जन्म लिया लेकिन दुनिया नहीं देख पाई। अस्पताल की बेरुखी ऐसी कि पिता को नवजात का शव ले जाने के लिए एंबुलेंस नहीं दी। उसके पास प्राइवेट एंबुलेंस किराए पर लेने के पैसे नहीं थे और आखिर उसे गांव तक ऐसे ही आना पड़ा।
मामला महाराष्ट्र के पालघर जिले का है। यहां जोगलवाड़ी गांव के रहने वाले एक आदिवासी मज़दूर को अपनी मृत नवजात बेटी के शव को एक प्लास्टिक की थैली में लपेटकर राज्य परिवहन की बस से 90 किलोमीटर दूर अपने गांव ले जाना पड़ा।
अविता ने कहा कि रास्ते में मेरे गर्भ में हलचल थी। पीएचसी पहुंचने के बाद उन्हें एक घंटे से अधिक समय तक इंतजार करना पड़ा। बाद में उन्हें मोखड़ा ग्रामीण अस्पताल में रेफर कर दिया गया। उन्होंने मुझे एक कमरे में अलग कर दिया। जब मेरे पति ने विरोध किया, तो उन्होंने पुलिस को बुला ली और उसके पति को पिटवाया। भ्रूण के दिल की धड़कन को रिकॉर्ड नहीं कर पाने के बाद मोखड़ा के डॉक्टरों ने नासिक सिविल अस्पताल में स्थानांतरित करने की सलाह दी।
उन्होंने कहा कि मैं एसटी स्टैंड गया, 20 रुपये का कैरी बैग खरीदा, अपने बच्चे को कपड़े में लपेटा और एमएसआरटीसी बस में लगभग 90 किलोमीटर की यात्रा की। किसी ने नहीं पूछा कि मैं क्या ले जा रहा था। बच्चे को उसी दिन उनके गांव में दफनाया गया।
13 जून को सखाराम अपनी पत्नी को घर लाने के लिए नासिक लौट आए। उन्होंने दावा किया कि उन्होंने फिर से एम्बुलेंस लेने से इनकार कर दिया। कमजोर और अस्वस्थ होने के बाद, अविता ने बस से वापस यात्रा की। सखाराम ने कहा कि उन्होंने उसे कोई दवा भी नहीं दी। मोखड़ा ग्रामीण अस्पताल के डॉ. भाऊसाहब चत्तर ने कहा कि बच्चा गर्भ में ही मर चुका था। हमारे केंद्र में एम्बुलेंस खराब हो गई थी, इसलिए हमने आसे से एक की व्यवस्था की। चत्तर ने यह भी दावा किया कि अस्पताल ने वापसी यात्रा के लिए एक एम्बुलेंस की पेशकश की थी, लेकिन सखाराम ने कथित तौर पर इनकार कर दिया 11 जून को प्रसव पीड़ा शुरू होने पर सरकारी एम्बुलेंस नहीं आई और अंततः कई अस्पतालों के चक्कर काटने के बाद, 12 जून की रात नासिक में बच्ची मृत जन्मी।
मामला महाराष्ट्र के पालघर जिले का है। यहां जोगलवाड़ी गांव के रहने वाले एक आदिवासी मज़दूर को अपनी मृत नवजात बेटी के शव को एक प्लास्टिक की थैली में लपेटकर राज्य परिवहन की बस से 90 किलोमीटर दूर अपने गांव ले जाना पड़ा।
स्वास्थ्य विभाग पर लगाया बेरुखी का आरोप
आदिवासी मज़दूर का आरोप है कि नासिक सिविल अस्पताल ने शव ले जाने के लिए एम्बुलेंस देने से इनकार कर दिया। कटकारी आदिवासी समुदाय से आने वाले सखाराम कावर ने कहा कि मैंने अपनी बच्ची को स्वास्थ्य तंत्र की लापरवाही और बेरुखी के कारण खो दिया।बदलापुर में ईंट-भट्टे पर करते थे काम
सखाराम और उनकी पत्नी अविता (26) दिहाड़ी पर मजदूरी करके गुजर बसर करते हैं और हाल ही तक बदलापुर (ठाणे) में एक ईंट भट्ठे पर काम कर रहे थे। सखाराम और उनकी पत्नी अविता कटकारी आदिवासी समुदाय से आते हैं। वह मुंबई से लगभग 200 किलोमीटर दूर पालघर जिले के जोगलवाड़ी गांव में सुरक्षित प्रसव के लिए अपने घर लौटे थे।एंबुलेंस को करते रहे फोन
11 जून को, जब अविता को प्रसव पीड़ा हुई, तो उनकी मुसीबत शुरू हो गई। सखाराम ने कहा कि हमने सुबह से एम्बुलेंस के लिए फोन किया, लेकिन कोई नहीं आया। गांव की आशा कार्यकर्ता शुरू में अनुपलब्ध थी। जब उसने आपातकालीन नंबर 108 पर कॉल करने की कोशिश की तो काफी देर तक उसे कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। आखिरकर परेशान होकर वह अविता को खोडला सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्र ले जाने के लिए एक निजी वाहन की व्यवस्था करके पहुंचा।
गर्भवती को रेफर-रेफर का करते रहे खेल
अविता ने कहा कि रास्ते में मेरे गर्भ में हलचल थी। पीएचसी पहुंचने के बाद उन्हें एक घंटे से अधिक समय तक इंतजार करना पड़ा। बाद में उन्हें मोखड़ा ग्रामीण अस्पताल में रेफर कर दिया गया। उन्होंने मुझे एक कमरे में अलग कर दिया। जब मेरे पति ने विरोध किया, तो उन्होंने पुलिस को बुला ली और उसके पति को पिटवाया। भ्रूण के दिल की धड़कन को रिकॉर्ड नहीं कर पाने के बाद मोखड़ा के डॉक्टरों ने नासिक सिविल अस्पताल में स्थानांतरित करने की सलाह दी।मृत बच्ची को थमाया
एम्बुलेंस उपलब्ध नहीं थी, इसलिए 25 किलोमीटर दूर आसे गांव से एक एम्बुलेंस बुलाई गई। अविता देर शाम नासिक पहुंची जहां उसने 12 जून को रात लगभग 1:30 बजे एक मृत बच्ची को जन्म दिया। सुबह अस्पताल ने बच्चे का शव सखाराम को सौंप दिया, लेकिन शव को घर ले जाने के लिए एम्बुलेंस देने से इनकार कर दिया। लेकिन परिवहन की कोई व्यवस्था नहीं की। उसे एंबुलेंस मांगी तो इनकार कर दिया गया। प्राइवेट एंबुलेंस वालों से बात की तो उनकी 15 से 20 हजार रुपये डिमांड से वह हैरान हो गया।उन्होंने कहा कि मैं एसटी स्टैंड गया, 20 रुपये का कैरी बैग खरीदा, अपने बच्चे को कपड़े में लपेटा और एमएसआरटीसी बस में लगभग 90 किलोमीटर की यात्रा की। किसी ने नहीं पूछा कि मैं क्या ले जा रहा था। बच्चे को उसी दिन उनके गांव में दफनाया गया।